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छहढाला ]
[ २८७ शुभ-अशुभ बंध के फल मँझार, रति-अरति करै निजपद विसार। आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखें आपको कष्टदान ॥६॥ रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय। याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुःखदायक अज्ञान जान ॥७॥ इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानों मिथ्याचरित्त। यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ॥८॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोर्षे चिर दर्शनमोह एव। अन्तर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बरतें सनेह ॥९॥. धाएँ कुलिङ्ग लहि महतभाव, ते कुगुरु जन्म-जल-उपल नाव। जे राग-द्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादियुत चिह्न चीन ॥१०॥ ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव-भ्रमण छेव। रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत ॥११॥ जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधैं जीव लहै अशर्म। या। गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अजान ॥१२॥ एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त। कपिलादि-रचित श्रुत को अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास ॥१३॥ जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करत विविध-विध देह-दाह। आतम-अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ॥१४॥ ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पन्थ लाग। जगजाल भ्रमण को देह त्याग, अब 'दौलत' निज आतम सुपाग॥१५॥
- तीसरी ढाल
(नरेन्द्र/जोगीरासा छन्द) आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिये। आकुलता शिव माहिं न तातें, शिव-मग लाग्यौ चहिये। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिव-मग सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो॥१॥
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