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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह चार घातिया नाश, ज्ञान में लोक निहारा। दे जिनमत उपदेश, भव्य को दुख ते टारा ॥९॥ बहुरि अघाती तोरि, समय में शिव-पद पाया। अलख अखंडित जोति, शुद्ध चेतन ठहराया ॥१०॥ काल अनंतानंत, जैसे के तैसे रहि हैं । अविनाशी अविकार, अचल अनुपम सुख लहिहैं ॥११॥ ऐसी भावन भाय, ऐसे जे कारज करिहैं। ते ऐसे ही होय, दुष्ट करमन को हरिहैं ॥१२॥ जिनके उर विश्वास, वचन जिन-शासन नाहीं। ते भोगातुर होय, सह दुख नरकन माहीं ॥१३॥ सुख दुख पूर्व विपाक, अरे मत कल्पै जीया। कठिन कठिन ते मित्र, जन्म मानुष का लीया ॥१४॥ सो बिरथा मत खोय, जोय आपा पर भाई। गई न लावै फेरि, उदधि में डूबी राई ॥१५॥ भला नरक का वास, सहित समकित जो पाता। बुरे बने जे देव, नृपति मिथ्यामत माता ॥१६॥ नहीं खरच धन होय, नहीं काहू से लरना। नहीं दीनता होय, नहीं घर का परिहरना ॥१७॥ समकित सहज स्वभाव, आप का अनुभव करना। या बिन जप तप वृथा, कष्ट के माहीं परना ॥१८॥ कोटि बात की बात, अरे 'बुधजन' उर धरना। मन-वच-तन सुधि होय, गहो जिन-मत का शरना ॥१९॥ ठारा सौ पच्चास, अधिक नव संवत जानों। तीज शुक्ल वैशाख, ढाल षट् शुभ उपजानों ॥२०॥
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