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छहढाला
[२८१ छहढाला पण्डित दौलतरामकृत __ मङ्गलाचरण
(सोरठा) तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं।
पहली ढाल
(चौपाई) जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दुख तैं भयवन्त। तारौं दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार ॥१॥ ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्याण। मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥२॥ तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मँझार, बीत्यो एकेन्द्री तन धार ॥३॥ एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यौ-मस्यौ भस्यौ दुखभार। निकसि भूमि जल पावक भयौ, पवन प्रत्येक वनस्पति थयौ ॥४॥ दुर्लभ लहि ज्यौं चिंतामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट-पिपील-अलि आदि शरीर, धर-धर मस्यौ सही बहु पीर ।।५।। कबहुँ पंचेन्द्रिय पशु भयौ, मन बिन निपट अज्ञानी थयौ। सिंहादिक सैनी कै क्रूर, निबल पशु हति खाये भूर ॥६॥ कबहुँ आप भयौ बलहीन, सबलनि करि खायौ अति दीन। छेदन-भेदन भूख-पियास, भार-वहन हिम-आतप त्रास ॥७॥ वध-बन्धन आदिक दुख घने, कोटि जीभौं जात न भने। अति संक्लेश भावतें मस्यौ, घोर श्वभ्रसागर में पस्यौ ।८।। तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसैं नहि तिसो। तहाँ राध-श्रोणित वाहिनी, कृमि-कुल-कलित देह दाहिनी॥९॥
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