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छहढाला ]
[२८३ परिग्रह परिमाण विचारै, नित नेम भोग को धारै। मुनि आवन बेला जावै, तब जोग अशन मुख लावै ॥९॥ यों उत्तम किरिया करता,नित रहत पाप से डरता। जब निकट मृत्यु निज जाने, तब ही सब ममता भाने ॥१०॥ ऐसे पुरुषोत्तम केरा, 'बुधजन' चरणों का चेरा। वे निश्चय सुरपद पावै, थोरे दिन में शिव जावैं ॥११॥
छठवीं ढाल अथिर ध्याय पर्याय, भोग ते होय उदासी। नित्य निरंजन जोति, आत्मा घट में भासी ॥१॥ सुत दारादि बुलाय, सबनि” मोह निवारा। त्यागि शहर धन धाम, वास वन-बीच विचारा ॥२॥ भूषण वसन उतार, नगन है आतम चीना। गुरु ढिंग दीक्षा धार, सीस कचलोच जु कीना ॥३॥ त्रस थावर का घात, त्याग मन-वच-तन लीना। झूठ वचन परिहार, गहैं नहिं जल बिन दीना॥४॥ चेतन जड़ तिय भोग, तजो भव-भव दुखकारा। अहि-कंचुकि ज्यों जान, चित्त तें परिग्रह डारा ॥५॥ गुप्ति पालने काज, कपट मन-वच-तन नाहीं। पांचों समिति संवार, परिषह सहि है आहीं ॥६॥ छोड़ सकल जंजाल,आप कर आप आप में। अपने हित को आप, करो है शुद्ध जाप में॥७॥ ऐसी निश्चल काय, ध्यान में मुनि जन केरी। मानो पत्थर रची, किधों चित्राम उकेरी॥८॥
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