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बंदत हैं अरिहंत, जिन-मुनि जिन-सिद्धान्त को । नमें न देख महंत, कुगुरु कुदेव कुधर्म को ॥९ ॥ कुत्सित आगम देव, कुत्सित गुरु पुनि सेवकी ।
परशंसा षट भेव, करैं न सम्यकवान ह्वै ॥१० ॥ प्रगटो ऐसो भाव, कियो अभाव मिथ्यात्व को ।
बन्दत ताके पाँव, ‘बुधजन' मन-वच-कायतें ॥ ११ ॥ पांचवीं ढाल
तिर्यञ्च मनुज दोउ गति में, व्रत धारक श्रद्धा चित में | सो अगलित नीर न पीवै, निशि भोजन तजत सदीवै ॥१ ॥ मुख वस्तु अभक्ष न लावै, जिन भक्ति त्रिकाल रचावै । मन वच तन कपट निवारै, कृत कारित मोद संवारै ॥२॥ जैसी उपशमत कषाया, तैसा तिन त्याग कराया। कोई सात व्यसन को त्यागै, कोई अणुव्रत में मन पागे ॥३॥ त्रस जीव कभी नहिं मारै, विरथा थावर न संहारै । परहित बिन झूठ न बोले, मुख सांच बिना नहिं खोले ॥४॥ जल मृतिका बिन धन सबहू, बिन दिये न लेवे कबहू । व्याही बनिता बिन नारी, लघु बहिन बड़ी महतारी ॥५ ॥ तृष्णा का जोर संकोचे, ज्यादा परिग्रह को मोर्चे । दिश की मर्यादा लावै, बाहर नहि पाँव हिलावै ॥ ६ ॥ ताहू में गिरि पुर सरिता, नित राखत अघ तें डरता । सब अनरथ दंड न करता, छिन छिन निज धर्म सुमरता ॥७॥ द्रव्य क्षेत्र काल सुध भावै, समता सामायिक ध्यावै । पोषह एकाकी हो है, निष्किंचन मुनि ज्यों सोहै ॥८ ॥
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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
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