________________
छहढाला
[२८१ ज्यों सती अंग माहीं सिंगार, अति करत प्यार ज्यों नगर नारि।। ज्यों धाय चखावत आन बाल, त्यों भोग करत नाहीं खुशाल ॥८॥ जब उदय मोह चारित्र भाव, नहिं होत रंच हू त्याग भाव। तहाँ करै मंद खोटी कषाय, घर में उदास हो अथिर थाय॥९॥ सबकी रक्षा युत न्याय नीति, जिनशासन गुरु की दृढ़ प्रतीति। बहु रुले अर्द्ध पुद्गल प्रमान, अंतर मुहूर्त ले परम थान ॥१०॥ वे धन्य जीव धन भाग सोय, जाके ऐसी परतीत होय। ताकी महिमा खै स्वर्ग लोय, बुधजन भाषे मो” न होय॥११॥
चौथी ढाल ऊग्यो आतम सूर, दूर भयो मिथ्यात-तम।
अब प्रगटे गुणभूर, तिनमें कछु इक कहत हूँ॥१॥ शंका मन में नाहिं, तत्त्वारथ सरधान में।
निरवांछा चित माहिं, परमारथ में रत रहै ॥२॥ नेक न करत गिलान, बाह्य मलिन मुनि तन लखे।
नाहीं होत अजान, तत्त्व कुतत्त्व विचार में ॥३॥ उर में दया विशेष, गुण प्रकटैं औगुण ढके।
शिथिल धर्म में देख, जैसे-तैसे दृढ़ करै ॥४॥ साधर्मी पहिचान, करें प्रीति गौ वत्स सम।
महिमा होत महान्, धर्म काज ऐसे करै ॥५॥ मद नहिं जो नृप तात, मद नहिं भूपति ज्ञान को।
मद नहिं विभव लहात, मद नहिं सुन्दर रूप को ॥६॥ मद नहिं जो विद्वान, मद नहिं तन में जोर को।।
मद नहिं जो परधान, मद नहिं संपति कोष को ॥७॥ हूवो आतम ज्ञान, तज रागादि विभाव पर।
ताको है क्यों मान, जात्यादिक वसु अथिर को ॥८॥
मटन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org