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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह तो यौवन में भामिनि के संग, निशि-दिन भोग रचावे। अंधा हूँ धंधे दिन खोवै, बूढ़ा नाड़ हिलावे ॥५॥ जम पकड़े तब जोर न चाले, सैनहि सैन बतावै। मंद कषाय होय तो भाई, भवनत्रिक पद पावै॥ पर की संपति लखि अति झूरे, कै रति काल गमावै। आयु अंत माला मुरझावै, तब लखि लखि पछतावै ॥६॥ तहँ तैं चयकर थावर होता, रुलता काल अनन्ता। या विध पंच परावृत पूरत, दुख को नाहीं अन्ता । काललब्धि जिन गुरु-कृपा से, आप आप को जाने। तबही 'बुधजन' भवदधि तिरके, पहुँच जाय शिव-थाने ॥७॥
तीसरी ढाल इस विधि भववन के माहिं जीव, वश मोह गहल सोता सदीव। उपदेश तथा सहजै प्रबोध, तबही जागै ज्यों उठत जोध ॥१॥ जब चितवत अपने माहिं आप, हूँ चिदानन्द नहिं पुन्य-पाप। मेरो नाहीं है राग भाव, यह तो विधिवश उपजै विभाव॥२॥ हूँ नित्य निरंजन सिध समान, ज्ञानावरणी आच्छाद ज्ञान। निश्चय सुध इक व्यवहार भेव, गुण गुणी अंग-अंगी अछेव॥३॥ मानुष सुर नारक पशुपर्याय, शिशु युवा वृद्ध बहुरूप काय। धनवान दरिद्री दास राय, ये तो विडम्ब मुझको न भाय।।४।। रस फरस गन्ध वरनादि नाम , मेरे नाहीं मैं ज्ञानधाम। मैं एकरूप नहिं होत और, मुझमें प्रतिबिम्बत सकल ठौर ॥५॥ तन पुलकित उर हरषित सदीव, ज्यों भई रंकगृह निधि अतीव। जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय,तब चित परिणति ऐसी उपाय ॥६॥ को पुनो भव्य चित धार कान, वरणत हूँ ताकी विधि विधान। ९करै काज घर माहिं वास, ज्यों भिन्न कमल जल में निवास ॥७॥
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