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छहढाला
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तेरो जन्म हुओ नहिं जहां, ऐसा खेतर नाहीं कहाँ । याही जन्म - भूमिका रचो, चलो निकसि तो विधि से बचो ॥१० ॥ सब व्यवहार क्रिया को ज्ञान, भयो अनंती बार प्रधान । निपट कठिन 'अपनी' पहिचान, ताको पावत होत कल्याण ॥११ ॥ धर्म स्वभाव आप सरधान, धर्म न शील न न्हौन न दान । 'बुधजन' गुरु की सीख विचार, गहो धाम आतम सुखकार ॥१२ ॥ दूसरी ढाल
सुन रे जीव कहत हूँ तोकों, तेरे हित के काजैं । हो निश्चल मन जो तू धारे, तब कछु - इक तोहि लाजे ॥ जिस दुख से थावर तन पायो, वरन सकों सो नाहीं । अठदश बार मरो अरु जीयो, एक स्वास के माहीं ॥ १ ॥ काल अनंतानंत रह्यो यों, पुनि विकलत्रय हूवो । बहुरि असैनी निपट अज्ञानी, छिनछिन जीओ मूवो ॥ ऐसे जन्म गयो करमन - वश, तेरो जोर न चाल्यो । पुन्य उदय सैनी पशु हुवो, बहुत ज्ञान नहिं भाल्यो ॥ २ ॥ जबर मिलो तब तोहि सतायो, निबल मिलो ते खायो । मात तिया-सम भोगी पापी, तातें नरक सिधायो ॥ कोटिन बिच्छू काटत जैसे, ऐसी भूमि तहाँ है । रुधिर - राध- परवाह बहे जहां, दुर्गन्ध निपट तहाँ है ॥ ३ ॥ घाव करै असिपत्र अंग में, शीत उष्ण तन गाले। कोई काटे करवत कर गह, कोई पावक जालें ॥ यथायोग सागर-थिति भुगते, दुख को अंत न आवे । कर्म - विपाक इसो ही होवे, मानुष गति तब पावै ॥४॥ मात उदर में रहो गेंद है, निकसत ही बिललावे । डंभा दांत गला विष फोटक, डाकिन से बच जावे ॥
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