________________
२७० ]
[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
अमूल्य तत्त्व विचार बहु पुण्य-पुञ्ज-प्रसङ्ग से शुभ देह मानव का मिला। तो भी अरे! भवचक्र का फेरा न एक कभी टला ॥१॥ सुख प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते, सुक्ख जाता दूर है। तू क्यों भयंकर भावमरण-प्रवाह में चकचूर है।।२।। लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिये। परिवार और कुटुम्ब है क्या वृद्धि ? कुछ नहिं मानिये॥३॥ संसार का बढ़ना अरे! नर देह की यह हार है। नहीं एक क्षण तुमको अरे! इसका विवेक विचार है।॥४॥ निर्दोष सुख निर्दोष आनन्द लो जहाँ भी प्राप्त हो। यह दिव्य अन्त:तत्त्व जिससे बन्धनों से मुक्त हो॥५॥ परवस्तु में मूर्छित न हो इसकी रहे मुझको दया। वह सुख सदा ही त्याज्य रे! पश्चात् जिसके दुःख भरा ॥६॥ मैं कौन हूँ, आया कहाँ से और मेरा रूप क्या? सम्बन्ध दुःखमय कौन है? स्वीकृत करूँ परिहार क्या॥७॥ इसका विचार विवेक पूर्वक शांत होकर कीजिए। तो सर्व आत्मिक-ज्ञान के सिद्धान्त का रस पीजिये॥८॥ किसका वचन उस तत्त्व की उपलब्धि में शिवभूत है। निर्दोष नर का वचन रे! वह स्वानूभुति प्रसूत है॥९॥ तारो अहो तारो निजात्मा शीघ्र अनुभव कीजिये। सर्वात्म में समदृष्टि हो यह वच हृदय लख लीजिये॥१०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org