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रागादिनिर्णयाष्टक ]
[२७१ रागादिनिर्णयाष्टक
(दोहा) सर्व ज्ञेय ज्ञायक परम, केवल ज्ञान जिनन्द। तासु चरन वन्दन करें, मन धर परमानन्द ॥१॥
(मात्रक कवित्त) राग-द्वेष मोह की परणति, है अनादि नहिं मूल स्वभाव। चेतन शुभ्र फटिक मणि जैसें, रागादिक ज्यों रंग लगाव। वाही रंग सकल जग मोहित, सो मिथ्यामति नाम कहाव। समदृष्टी सो लखै दुहूँ दल, यथायोग्य वरतै कर न्याव ॥२॥
(दोहा) जो रागादिक जीव के, है कहुँ मूल स्वभाव । तो होते शिव लोक में, देख चतुर कर न्याव ॥३॥
सबहि कर्म नै भिन्न हैं,जीव जगत के माहिं। निश्चय नयसों देखिये, फरक रंच कहुँ नाहिं ।।४।। रागादिकसों भिन्न जब, जीव भयौ जिह काल। तब सिंह पायो मुकति पद, तोरि कर्म के जाल ॥५॥ ये हि कर्म के मूल हैं, राग द्वेष परिणाम। इनही से सब होत हैं, कर्म बन्ध के नाम ॥६॥
(चान्द्रायण छन्द २५ मात्रा) रागी बांधै करम भरम की भरनसों। वैरागी निर्बन्ध स्वरूपाचर नसों। यहै बन्ध अरु मोक्ष कही समुझाय के । देखो चतुर सुजान ज्ञान उपजायके ॥७॥
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