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जिनचतुर्विंशतिका ]
[२६९ पर सदैव हम यहाँ आपके उपदेशों की महिमा सोच। अनायास ही मोक्ष-स्वर्ग को, पा लेते हैं निस्संकोच ॥२१॥
इन्द्रों ने अभिषेक किया तव, किये देवियों ने शुभ गान। गन्धर्वो ने गाया लय से, शरच्चन्द्र सम यश अम्लान । शेष सुरों ने स्वीय नियोगों, के अनुसार किये उपचार । तब अब हम क्या करें? सोच मन, चंचल होता बारम्बार ॥२२॥
भगवन् ! तव जन्माभिषेक में, नर्तक इन्द्रों ने अवदात । वह रोमांच-कंचुकी धारण कर, जो नृत्य किया विख्यात ॥
और देवियों की वीणा से जो झंकार हुई जगदीश। उन सबका उल्लेख न कोई, भी कर सकता है हे ईश ॥२३॥
अम्बुज-दल सम नयनमयी, तव प्रतिमा का दर्शन कर देव। जबकि हमारे नयनों को यह, इतना सुख मिलता स्वयमेव ॥ तब कल्याणक-समय एक टक नयनों से तव रूप अपार । देख सुरों को जो सुख मिलता, वह अवर्ण्य है सभी प्रकार ॥२४॥
जिन श्री-गृह को देख रसायन का गृह देखा है जिनराज। देखा निधियों का निवास-गृह, सिद्ध-रसालय देखा आज ॥ चिन्तामणी-निकेतन देखा, अथवा इनसे है क्या लाभ? देखा मैंने आज मुक्ति का परिणय-मंगल-गृह अमिताभ ॥२५॥
हे जिनचन्द्र! किये तव दर्शन, औ भूपति-दृग-कुमुद-ललाम। विज्ञ चकोरों को सुखप्रद तव, संस्तुति-जलमें अति अभिराम॥ स्नान किया है और आज ही, शान्त किए हैं तापज क्लेश। अब जाता तव चिन्तन करता, तव दर्शन हो पुन: जिनेश ॥२६॥
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