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जिनचतुर्विंशतिका ]
[२६७ प्रभो! पूज्य औ, स्वतः रुचिर, तव नख-दर्पण में बारम्बार। स्वमुख देखकर भव्य जीव श्री, कीर्ति कान्ति धृति के आगार। किन शुभ मंगलमयी प्रसंगों को न प्राप्त होता स्वयमेव। कहने का सारांश कि वह सब शुभ मंगल पाता है देव॥१६॥
सुर-नर की श्री-रूप सुधा के अमृत-झरनों से अभिराम। अतिशय फलयुत धर्मवृक्ष के अग्रभाग पर लगी ललाम।। किसलय दल के शिखर सदृश ही, शोभित ध्वज से श्री गृह रूप। यह जिनेन्द्र का मन्दिर जग में सबसे उत्तम और अनूप॥१७॥
जिनके नख-शशि में प्रतिबिम्बत, होते विनत सुरी के केश। जिनके चरण-कमल की पूजा करते हैं अमरेश नरेश ॥ तथा जिन्होंने कर्म रूप निज अरि की सेना ली है जीत। वे जिनेन्द्र ही तीनों लोकों में सर्वोत्तम और पुनीत ॥१८॥
स्वामिन् ! सोकर उठे पुरुष को, यदि शुभ मङ्गल के प्राप्त्यर्थ। मंगल वस्तु देखनी हो तो, अन्य वस्तुएँ सब हैं व्यर्थ ॥ त्रिभुवन के हर मंगल के गृहरूप, आपका वदन-मयंक। मात्र देख ले तो हर मंगल, प्राप्त उसे होगा निःशंक ॥१९॥
नाथ! आप धर्मोदय-वन-शुक, आप काव्य-क्रम-क्रीड़ा-रूप। नन्दन वन के पिक, सुजनों की, चर्चा-सर के हंस अनूप ।। अत: आपको कौन गुणी जन, गुण-मणि-माला से समवेत। अपने मंजुल मुकुट झुकाकर नमन न करता भक्ति समेत ॥२०॥
कुछ जन चाह मुक्ति सुख एवं, देवों की लक्ष्मी का सङ्ग। भाँति-भाँति के दुःख-समूह से नियमित करते अपने अङ्ग॥
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