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जिनचतुर्विंशतिका ]
[२६५ देव! दृगों में अमृत-वर्षक, अति प्रसाद से शोभावान। तेज-अलंकृत तव मुख-शशि का दर्शन कर मैंने भगवान। सर्वोत्तम द्रष्टव्य वस्तु का दर्शन कर दृग किये पवित्र। अत: विश्व में मैं ही हूँ अब नेत्रवान हे त्रिभुवन-मित्र ॥११॥
जिनवर ! कोई मुग्ध कामिनी के, कटाक्ष के द्वारा विद्ध। हरि, हर, ब्रह्मा को ही कहते, काम-विजेता मल्ल प्रसिद्ध । किन्तु आपने विफल किये, सुर-वधुओं के दृग-बाण-प्रहार। अतः आपको ही है मन्मथ-जयी, कहाने का अधिकार ॥१२॥
तव दर्शन की इच्छा से ही, मेरे पुण्य-विटप में आप्त। पल्लव निकले, निकट-गमन से, हुई सघन सुमनावलि व्याप्त ।। और आपके मुख-शशि-दर्शन से, इस समय लगे फल ईश। अत: आपका पावन दर्शन, पुण्य हेतु है हे योगीश ॥१३॥
त्रिभुवन-वन में व्याप्त मदन के, मद के दावानल का ताप। निज उपदेशामृत की वर्षा से शीतल कर देते आप॥ तथा सुराधिप रूप शिखी के, नर्तन में भी निस्सन्देह। सबसे श्रेष्ठ आप ही, आग्रहकारी बन्धु स्वरूपी मेह ॥१४॥
चक्री इन्द्र प्रमुख नर सुर के, नयन-भ्रमर के लीलाधाम।
चैत्यवृक्ष औ, अखिल जगत के, कुमुद वर्ग को शशि अभिराम॥ जिनमन्दिर की त्रय-प्रदक्षिणा दे, कर-युगल जोड़ सानन्द। तव श्री-पद से विगत-ताप हो,,पाया मैंने शिव आनन्द ॥१५॥
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