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कल्पद्रुम स्तवन ]
[२५९ तीर्थकरदेव, जिनवाणी, आचार्य कुन्दकुन्द एवं पूज्य गुरुदेव का
उपकारोल्लेख (दोहा) नमूं तीर्थनायक प्रभो! वन्दूँ ध्वनि ऊँकार ! कुन्दकुन्द मुनि को नमूं, जिन झेला ऊँकार ॥६७ ॥ जिनवर ध्वनि, मुनि कुन्द का, है उपकार महान। कुन्दध्वनि दातार जो, उपकारी गुरु कहान॥६८ ॥
कल्पद्रुम-स्तवन कल्पद्रुम यह समवशरण है भव्यजीव का शरणागार । जिनमुखघन से सदा बरसती चिदानन्दमय अमृतधार ॥ जहाँ धर्म वर्षा होती वह समवशरण अनुपम छविमान। कल्पवृक्ष सम भव्यजनों को देता गुण अननत की खान ।। सुरपति की आज्ञा से धनपति रचना करते हैं सुखकार । निज की कृति ही भाषित होती अति आश्चर्यमयी मनहार ॥१॥ निज ज्ञायक स्वभाव में जमकर प्रभु ने जब ध्याया शुक्लध्यान। मोहभाव क्षयकर प्रगटाया यथाख्यात चारित्र महान ॥ तब अन्तमुहूर्त में प्रगटा के वलज्ञान महा सुखकार । दर्पण में प्रतिबिम्ब तुल्य जो लोकालोक प्रकाशनहार ॥२॥ गुण अनन्तमय कला प्रकाशित चेतन-चन्द्र अपूर्व महान। राग आग की दाह रहित शीतल झरना झरता अभिराम॥ निज वैभव में तन्मय होकर भोगें प्रभु आनन्द अपार । ज्ञेय झलकते सभी ज्ञान में किन्तु न ज्ञेयों का आधार ॥३॥ दर्शन ज्ञान वीर्य सुख है सदा सुशोभित चेतनराज। चौंतिस अतिशय आठ प्रातिहार्यो से शोभित है जिनराज। अन्तर्बाह्य प्रभुत्व निरखकर भव्य लहें आनन्द अपार । प्रभु चरण कमल मैं वन्दन कर पाई सुख शान्ति अपार ॥४॥
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