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श्री समवसरण स्तुति ]
[ २५७ तीर्थ कर्ता हे प्रभो! तुम जगत में जयवन्त हो। ॐ कार मय वाणी तुम्हारी जगत में जयवन्त हो। समवशरण जिनेन्द्र के सब जगत में जयवन्त हों। अरु चार तीर्थ सदा जगत में भी अहो जयवन्त हों॥५५॥
समवसरण की महानता (दोहा) समवसरण का शास्त्र में, वर्णन किया विशाल। किन्तु कहा उस जलधि का, बिन्दु मात्र कुछ हाल ॥५६॥ बिन देखे समझे नहीं, यह जिनवर का गेह । भाग्य नहीं है भरत का, बड़भागी क्षेत्र विदेह ॥५७॥
जिनागम की महिमा (हरिगीत) समवशरण जिनेन्द्र का हो यहाँ नहिं यह भाग्य है। साक्षात् जिनध्वनि का श्रवण भी हो न ऐसा भाग्य है। तो भी सीमन्धर नाथ एवं वीर मंगल-ध्वनि की। सुनी जाती गूंज है जिन आगमों में आज भी ॥५८ ॥
आश्चर्य जनक घटना (दोहा) विक्रम शक प्रारम्भ में, घटना इक सुखदाई।
जिससे ध्वनि विदेह की, भरत क्षेत्र में आई ॥५९॥ आचार्य कुन्दकुन्द को साक्षात तीर्थकर की विरह वेदना (हरिगीत) बहु ऋद्धिधारी कुन्दकुन्द मुनि हुए इस काल में। श्रुतज्ञान में जो कुशल अरु अध्यात्म रत योगीश थे॥ साक्षात् श्री जिन-विरह की हुई वेदना आचार्य को। हा! हा! सीमन्धरनाथ का नहिं दरश है इस क्षेत्र को॥६० ॥
विदेह गमन (वीर छन्द) सत्धर्म वृद्धि हो अरे ! अचानक बोल उठे तब श्री जिनराज। सीमन्धर जिन समवसरण में अर्थ न समझी सकल समाज॥
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