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________________ २५६] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह दिव्यध्वनि श्रवण का फल वाणी सुनकर बहुज्ञानी बनें, अणुव्रतधारी, निर्ग्रन्थ बनें। निर्ग्रन्थ मुनी जिनध्वनि सुनकर, निज अनुभव धार अखण्ड करें।।४९ ॥ सर्वज्ञता और वीतरागता का वर्णन (हरिगीत) मोह का अंकुर अहो! नहिं शेष रहता है जहाँ। अज्ञान का भी अंश जलकर भस्मरूप हुआ वहाँ। निज दर्श आनन्द ज्ञान बल प्रगटे अनन्त अहो जहाँ। जिनराज के पद-पंकजों में, स्थान मेरा हो वहाँ५० ॥ जिस तेज में परमाणुवत् लघु यह जगत है भासता। प्रगटा जहाँ परिपूर्ण ज्ञान अनन्त लोकालोक का॥ त्रण काल की पर्याय युत सब द्रव्य को युगपत लखे। अति नम्र होकर जिन-चरण में शीश यह मेरा झुके ॥५१॥ देवोपनीत समवसरण से राग नहिं किञ्चित् अहा। मलिन रजकण के प्रति नहिं द्वेष किञ्चित् भी रहा। समवसरण अरु धूल जिसमें ज्ञेय केवल हैं अहो। जिनराज जी! उस ज्ञान को मम वन्दना शतबार हो ॥५२॥ शत इन्द्रगण निज शीश धरते तुम चरण में हो भले। इन्द्राणियाँ स्वस्तिक करती हों रतन-रज से भले ॥ पर आपकी परिणति नहीं इन ज्ञेय के सम्मुख जरा। निज रूप में डूबे हुए हो नमन तुमको जिनवरा ॥५३॥ जिनेन्द्र स्तवन जग के अगाध तिमिर विनाशक सूर्य तुम ही हो प्रभो। अज्ञान से अंधे जगत के नेत्र तुम ही हो विभो । भव जलधि में डूबे जनों की नाव भी तुम ही अहो। माता-पिता अरु गुरु सब कुछ हे जिनेश्वर! आप हो ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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