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श्री समवसरण स्तुति ]
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त्रण छत्र शोभें शीश पर जिन सुयश मूर्तिमन्त ज्यों । मौक्तिक प्रभा है चन्द्र सम रत्नांशु रवि भासित अहो ॥ ४० ॥ अशोक वृक्ष प्रातिहार्य ( हरिगीत)
योजन विशाल अशोक तरुवर शोक तिमिर निवारता । मणि स्कन्ध मणिमय पत्र अरु मणिपुष्प से शोभित अहा ॥ झूलती बहु शाख अरु अलिगण मधुर गुंजन करें। क्या वृक्ष हाथ हिला-हिला कर भक्ति से जिनवर भजें ॥ ४१ ॥ जिनेन्द्र महिमा ( त्रोटक )
चहुँदिशि जिनवर के मुख दिखते, अशुचि नहीं दिव्य शरीर विषें । नहिं रोग क्षुधा न जरा तन में, न निमेष अहो नयनाम्बुज में ॥४२ ॥ मणिपुञ्ज सुधारस अरु शशि से, जिन-तन सुन्दरता अधिक लसे।
अति सौम्य प्रसन्न मुखाम्बुज में, भवि-नेत्र अलि अति लीन हुए ।।४३ ॥ भामण्डल प्रातिहार्य
जिन - देह दिवाकर तेज विषे, रवि- शशि तारों का तेज छिपे । रवि-बिम्ब प्रभा से अधिक कान्ति, श्री जिनवर के भामण्डल की ॥४४ ॥ सुर असुर तथा मानव निरखें, स्व-भवान्तर सात प्रमोद धरें । जिनदेह प्रभा अति पावन में, जग के बहुमंगल दर्पण में ॥ ४५ ॥ दिव्यध्वनि देव - दुन्दुभि एवं पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य घन-गर्जन वत् जिनवाणी झरे, भवि चित्त- चकोर सुनृत्य करे । सुर दुंदुभि वाद्य बजें नभ में, हो पुष्पवृष्टि बहु योजन में ||४६ ॥ दिव्यध्वनि महिमा
कर्णप्रिय प्रभु की ध्वनि सुनकर, गंभीर अहो ! विस्मित गणधर । ध्वनि वेग बहे भवि चित भींजे, शुचि ज्ञान झरे भवताप बुझे ॥४७॥ दिव्यध्वनि अक्षर एक भले, बहुरूप बने सब जीव सुनें । जैसे निर्मल जल एक भले, तरु भेदों से बहु भेद लहे ॥ ४८ ॥
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