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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
'द्वितीय पीठ' उस पीठ पर है पीठ स्वर्णिम अति मनोरम दूसरी। मन मुग्धकारी पीत ज्योति चहुँ दिशा फैला रही।
आठ ध्वज सुन्दर मनोहर चिह्नयुत लहरा रहे। सिद्ध प्रभु के गुण समान सुस्वच्छ सुन्दर शोभते ॥३५॥
'तृतीय पीठ' विविध रत्नों से बनी यह पीठ मनहर तीसरी। विविध रंगमयी सुरम्य प्रकाश यह फैला रही। दैवी सुमन है हँस रहे सब द्रव्य मंगल शोभते। चारों निकायों के अमर इस पीठ की पूजा करें॥३६॥
गन्धकुटी शोभा (वीरछन्द) गन्धकुटी शोभे अति सुरभित पुष्प धूप की सौरभ से। मोती की मालाएँ लटकें नभ को रँगें रत्नधुति से ॥ रत्नमयी शिखरों पर मनहर लाखों ध्वज लहराते हैं। सुन्दरता की अधिदेवी में जग वैभव झलकाते हैं ॥३७॥
सिंहासन प्रातिहार्य (हरिगीत) दैवी प्रभामय यह सिंहासन है निराला शोभता। स्वर्णमय बहुमूल्य मणियों से जड़ित मन मोहता। देवोपनीत सहस्रदल युत कमल जिस पर खिल रहा। सुर-असुर और मनुष्य का मन मुग्ध अतिशय हो रहा ॥३८॥
जिनेन्द्र दर्शन (त्रोटक) चतुरांगुल ऊपर जिन शो), नर-इन्द्र सुरेन्द्र मुनीश जजें। निर-आलम्बी जैसा आतम, बिन आलम्बी वैसा जिन तन॥३९॥
चँवर एवं छत्र प्रातिहार्य (हरिगीत) क्षीर-अमृत तुल्य उज्ज्वल चँवर चौसठ जिन ढुरें। मानो समुद्र तरंग, गिरि-निर्झर प्रभु सेवन करें।
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