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श्री समवसरण स्तुति ]
स्तूप ( हरिगीत)
है
स्तूप अति ऊँचा मनोहर पद्मराग मणिमय अहा । अरिहन्त प्रभु अरु सिद्ध के बहु बिम्ब से शोभित महा ॥ सुर असुर मानव भाव भीने चित्त से पूजा करें। अभिषेक नमन प्रदक्षिणा कर हर्ष बहु उर में धरें । । २९ ॥ स्फटिक मणिमय कोट (दोहा)
कोट स्फटिकमयी अहो ! सुन्दर अति उत्तंग । पद्मराग के द्वार हैं मंगल द्रव्य दिपंत ॥३०॥ रत्नों की दीवार हैं रत्नों के स्तम्भ । है इक योजन व्यास का उन्नत मण्डप - रत्न ॥३१॥
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श्री मण्डप भूमि 'बारह सभाएँ' (हरिगीत) शोभित श्री मंडप अहो ! गणधर मुनि अरु आर्यिका । तिर्यंच सुरगण और मानव की सुशोभित यह सभा ॥ मृग - सिंह अरु अहि-मोर भी निज और को हैं भूलते। सब शान्त चित एकाग्र हो जिन वचन - अमृत झेलते ॥३२॥ इस श्री मण्डप में अहो ! नित पुष्पवृष्टि सुर करें। क्या स्फटिक मणिमय गगन में तारे अहो नित नव उगें ॥ किरणें रतन - दीवार की जो जल-तरंग समान क्या ? जिनराज के उपदेश का अमृत महोदधि उछलता ॥३३॥ गन्धकुटी 'प्रथम पीठ' (हरिगीत)
वैडूर्य रत्नों से बनी यह पीठ पहली शोभती। वसुद्रव्य मंगल और सोलह सीढ़ियाँ मन मोहती ॥ यक्षगण के शीष पर है धर्मचक्र विराजता । सहस आरों की प्रभा से सूर्य भी लज्जित हुआ ॥ ३४ ॥
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