________________
२५२]
[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह ध्वज भूमि (हरिगीत) है स्वर्ण के स्तम्भ पर ध्वज पंक्ति की शोभा महा। कमल माला अरु मयूरादिक सुचिन्होंयुत अहा! क्या त्रिलोकीनाथ का यह विजय-ध्वज फहरा रही? प्रभु पूजने के लिये अथवा जगत को बतला रही ॥२०॥
रजतमयी कोट (दोहा) चांदी का यह कोट है, उन्नत कान्तिमान। नाटयग्रहों अरु लक्ष्मी से, अति शोभावान ॥२१॥
कल्पवृक्ष भूमि (त्रोटक) यह कल्पतरु भू रम्य अहा, सुर-सरि भवनादिक स्वर्गसमा। दशभेद अहो तरु कल्प तले, निज-धाम विसरि सब देव रमें।२२।। मालांग तरू बहु माल धरे, दीपांग तरु पर दीप जले। पुष्पों-दीपों की माला से, वन पूज रहा क्या जिनवर को ? ॥२३॥ सिद्धार्थ तरु अति दिव्य दिखे, जो मनवांछित फलदायक है। छत्रत्रय शोभित है तरु पर, घण्टा बाजे अरु फहरे ध्वज ॥२४॥ इस तरुतल में सिद्धबिम्ब रहे, सुरलोक जहाँ प्रभुभक्ति करे। कोई स्तोत्र पढ़े, प्रभु गुण सुमरे, कोई नम्रपने जिनराज नमे ॥२५॥ कोई गान करे कोई नृत्य करे, निर्मल जल से अभिषेक करे। कोई दिव्य दीप अरु धूपों से, अति भक्ति से जिनराज भजे ॥२६॥
स्वर्णमयी वेदी (दोहा) फिर वन वेदी स्वर्ण की, गोपुरादि संयुक्त। अति सुन्दर प्रासादमय, भूमि रत्न स्तूप ॥२७॥
भवन भूमि (चौपई) स्वर्ण स्तम्भ मणिमय दीवार, चन्द्र समान भवन हैं चार। देव रमें अरु चर्चा करें, नृत्य करें प्रभु गुण उचरें॥२८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org