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श्री समवसरण स्तुति ]
[२५१ स्वर्णमयी कोट (दोहा) स्वर्णमयी मणि जड़ित है, कोट अति उत्तंग । कनक प्रभा में मानिये, शोभित है नक्षत्र ॥१३॥
(वीरछन्द) कर में शस्त्र लिए हैं सुरगण द्वारपाल बन खड़े हुए। मंगल द्रव्य सुरम्य नवों निधि तोरण भी है बँधे हुए। दोनो ओर द्वार के सुन्दर नाट्य भवन है स्फटिकमयी । और दूर पर धूमघटों की धूम गगन को ढाँक रही ॥१४॥
. (हरिगीत) यह नाट्यशाला गूंजती वीणा मृदंग सुताल से । गन्धर्व किन्नर गान से सुरकामिनी के नृत्य से ॥ देवांगना जयघोष करती हर्षमय नर्तन करें। जिन-विजय का अभिनय करें कुसुमाजली अर्पण करें॥१५॥
उपवनभूमि (वीरछन्द) चम्पक आम्र अशोक आदि वन भू की छटा मनोहर है। रम्य नदी तालाब, भवन अरु चित्रकला-गृह सुन्दर है। मन्द स्वरों में कोकिल कुहके वृक्ष फलों से लदे हुए। प्रभु चरणों में अर्पित करने अर्ध्य लिए वे खड़े हुए॥१६॥
(त्रोटक) बहु वृक्ष विशाल मनोहर हैं, रवि-किरणों के अवरोधक हैं। जगमग-जगमग तरु-तेज महा, है दिन या रात न जाय कहा॥१७॥ तहाँ चैत्य तरु-तल दिव्य महा, जिनबिम्ब सुशोभित होंय जहाँ। सुरगण भक्ति से नाच रहे, जय-घोषों से वन गूंज उठे॥१८॥
(दोहा) रत्न जड़ित है स्वर्ण की, कटि-करधनी समान। शोभित है वन-वेदिका, फिर ध्वज भूमि जान ॥१९॥
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