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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह चहुँ दिशि वापी चार स्फटिक-तटयुत निर्मल नीर भरा । भाव सहित वन्दूँ यह मानस्तम्भ मान सब गला रहा ॥६॥
(हरिगीत) जिनालय की भूमि अति पावन तथा दैवी अहो। है अनेक जिनालयों की मनोहर रचना अहो॥ देव अरु मानव वहाँ प्रभु भक्ति भीने हृदय से। नृत्य करते, प्रभु चरण में चित्त को अर्पित करें॥७॥
___ खातिका भूमि (दोहा) जल से पूरित खातिका, शोभित वलयाकार। हंसे तरंगों से सदा, जलचर रमें अपार ॥८॥
(वीरछन्द) निर्मल नीर सुतट मणियों का, क्या यह चन्द्रकान्तमणि द्रवता। प्रभु पूजन की उच्च भावना, ले मानो उतरी सुर-सरिता ॥९॥
लतावन भूमि (दोहा) भव्य लतावन की धरा, चहुँदिशि महके गन्ध। खिले पुष्प ऐसे लगे, लता हँस रही मन्द॥१०॥
(हरिगीत) विविध रंगी पुष्प रज उड़ती जहाँ गति मन्द से। जो ढाँकती वन गगन को नित सान्ध्य रवि के रंग से। दिव्य क्रीडा स्थल जहाँ पर लता मण्डप भव्य है। शीतल शिला शशिकान्तमणि की इन्द्र विश्रान्ति लहें॥११॥
(चौपाई) षट् ऋतु के सब फूल खिले हैं, मन्द सुगन्ध पवन बहती है। क्या सुगन्ध यह वन पुष्पों की? या सुकीर्ति है श्री जिनवर की ॥१२॥
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