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श्री समवसरण स्तुति ]
[२४९ मूल लेखक पण्डित श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह सोनगढ़ द्वारा रचित श्री समवसरण स्तुति (पद्यानुवाद)
मंगलाचरण
(दोहा) धर्म काल वर्ते अहो! धर्म स्थान विदेह । धर्म प्रवर्तक बीस जिन, गर्जे नित्य सदेह ॥१॥
__ समवसरण महिमा (वीरछन्द) जिनवर जहाँ सुशोभित हैं वह समवसरण अति शोभावान। जिसकी लोकोत्तर शोभा से फीका पड़ता है सुरधाम ॥ सुरपति की आज्ञा से धनपति रचना रचते रम्य महान् । स्वयं स्वयं की रचना लखकर स्वयं लहें आश्चर्य महान ॥२॥
समवसरण विस्तार (सोरठा) भव्य अचिन्त्य महान, रत्नमयी रचना अहो। जिनवर धर्म स्थान, बारह योजन व्यास का ॥३॥
धूलिसाल कोट (वीरछन्द) समवसरण को घेरे कंकण सम यह धूलीसाल विशाल। विविध वर्ण रत्नों की रज से रच कर जिसको देव निहाल॥ रत्नों से किरणों की बहुरंगी ज्योति अति फैल रही। क्या यह इन्द्र धनुष उतरा है सेवा करने जिनवर की ॥४॥
(दोहा) धूलि साल के सामने, मानस्तंभ है चार। स्वर्णमयी अति उच्च हैं, मानी-मान निवार ।।५॥
चैत्यप्रसाद भूमि (वीरछन्द) छत्र चँवर शोभे, भव्यों का करें निमन्त्रण ध्वजा विशाल । घण्टे अरु वाजित्र बजे, सुरपति करते प्रतिमा प्रक्षाल॥
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