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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह शुभ तीर्थ के उद्धार आदिक कार्य कर पाये नहीं, नर-जन्म पारस-तुल्य निज मैंने गँवाये व्यर्थ ही ॥२१॥ शास्त्रोक्त विधि वैराग्य भी करना मुझे आता नहीं। खल-वाक्य भी गतक्रोध हो सहना मुझे आता नहीं। अध्यात्म-विद्या है न मुझमें है न कोई सत्कला, फिर देव! कैसे यह भवोदधि पार होवेगा भला? ॥२२॥ सत्कर्म पहले जन्म में मैंने किया कोई नहीं, आशा नहीं जन्मान्य में उसको करूँगा मैं कहीं। इस भांति का यदि हूँ जिनेश्वर! क्यों न मुझको कष्ट हों? संसार में फिर जन्म तीनों क्यों न मेरे नष्ट हों? ॥२३॥ हे पूज्य! अपने चरित को बहुभाँति गाऊँ क्या वृथा, कुछ भी नहीं तुमसे छिपी है पापमय मेरी कथा। क्योंकि त्रिजग के रूप हो तुम, ईश हो, सर्वज्ञ हो, पथ के प्रदर्शक हो, तुम्हीं मम चित्त के मर्मज्ञ हो॥२४॥ दीनोद्धारक धीर हे प्रभु आप सा नहीं अन्य है, कृपा-पात्र भी नाथ! न मुझसा कहीं अवर है। तो भी माँगू नहीं धान्य धन कभी भूल कर, अर्हन् ! प्राप्त होवे केवल बोधिरत्न होवे मंगलकर ॥२५ ।।
श्री रत्नाकर गुणगान यह दुरित दुःख सब के हरे। बस एक यही है प्रार्थना मंगलगय जग को करे ।
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