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रत्नाकर पंचविंशतिका ]
प्रभुता न मुझ में स्वप्न को भी चमकती है, देखिये, तो भी भरा हूँ गर्व से मैं मूढ़ हो किसके लिए ! ॥१५ ॥ हा ! नित्य घटती आयु है पर पाप-मति घटती नहीं, आई बुढ़ौती पर विषय से कामना हटती नहीं । मैं यत्न करता हूँ दवा में, धर्म मैं करता नहीं । दुर्मोह-महिमा से ग्रसित हूँ नाथ! बच सकता नहीं ॥ १६ ॥
अघ-पुण्य को, भव-आत्म को मैंने कभी माना नहीं, हा! आप आगे हैं खड़े दिननाथ से यद्यपि यहीं । तो भी खलों के वाक्यों को मैंने सुना कानों वृथा, धिक्कार मुझको है, गया मम जन्म ही मानों वृथा ॥१७॥ सत्पात्र - पूजन देव - पूजन कुछ नहीं मैंने किया, मुनिधर्म- श्रावक धर्म का भी नहिं सविधि पालन किया। नर-जन्म पाकर भी वृथा ही मैं उसे खोता रहा, मानो अकेला घोर वन में व्यर्थ ही रोता रहा ॥ १८ ॥ प्रत्यक्ष सुखकर जिन-धरम में प्रीति मेरी थी नहीं, जिननाथ ! मेरी देखिये है मूढ़ता भारी यही । हा ! कामधुक कल्पद्रुमादिक के यहाँ रहते हुए, हमने गँवाया जन्म को धिक्कार दुख सहते हुए ॥१९॥ मैंने न रोका रोग-दुख संभोग सुख देखा किया, मन में न माना मृत्यु-भय धन-लाभ ही लेखा किया। हा! मैं अधम युवती - जनों का ध्यान नित करता रहा, पर नरक - कारागार से मन में न मैं डरता रहा ॥२०॥ सद्वृत्ति से मन में न मैंने साधुता ही साधिता, उपकार करके कीर्ति भी मैंने नहीं कुछ अर्जितम् ।
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