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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह संसार ठगने के लिए वैराग्य को धारण किया, जग को रिझाने के लिए उपदेश धर्मों का दिया। झगड़ा मचाने के लिए मम जीभ पर विद्या बसी, निर्लज्ज हो कितनी उड़ाऊँ हे प्रभो! अपनी हँसी ॥९॥ परदोष को कह कर सदा मेरा वदन दूषित हुआ, लख कर पराई नारियों को हा नयन दूषित हुआ। मन भी मलिन है सोचकर पर की बुराई हे प्रभो, किस भाँति होगी लोक में मेरी भलाई हे प्रभो ॥१०॥ मैंने बढ़ाई निज विवशता हो अवस्था के वशी, भक्षक रतीश्वर से हुई उत्पन्न जो दुख-राक्षसी। हा! आपके सम्मुख उसे अति लाज से प्रकटित किया, सर्वज्ञ! हो सब जानते स्वयमेव संसृति की क्रिया॥११॥ अन्यान्य मन्त्रों से परम परमेष्ठि-मंत्र हटा दिया। सच्छास्त्र-वाक्यों को कुशास्त्रों से दबा मैंने दिया। विधि-उदय को करने वृथा, मैंने कुदेवाश्रय लिया, हे नाथ! यों भ्रमवश अहित मैंने नहीं क्या क्या किया ॥१२॥ हा! तज दिया मैंने प्रभो! प्रत्यक्ष पाकर आपको, अज्ञान वश मैंने किया फिर देखिये किस पाप को। वामाक्षियों के राग में रत हो सदा मरता रहा, उनके विलासों के हृदय में ध्यान को धरता रहा ॥१३॥ लख कर चपल-दृग-युवतियों के मुख मनोहर रसमई, जो मन-पटल पर राग भावों की मलिनता बस गई। वह शास्त्र-निधि के शुद्ध जल से भी न क्यों धोई गई? बतलाइए यह आप ही मम बुद्धि तो खोई गई ॥१४॥ मुझमें न अपने अंग के सौन्दर्य का आभास है, मुझमें न गुणगण हैं विमल, न कला-कलाप-विलास है।
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