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बाईस परीषह ]
[२३३ (१९)सत्कार-पुरस्कार परीषह जो महान विद्या निधि विजयी, चिर तपसी गुण अतुल भरे हैं। तिनकी विनय वचन से अथवा, उठ प्रणाम जन नाहिं करे हैं। तो मुनि तहाँ खेद नहिं मानत, उर मलीनता भाव हरे हैं। ऐसे परम साधु के अह-निशि, हाथ जोड़ हम पांय परे हैं।
(२०) प्रज्ञा परीषह तर्क छन्द व्याकरण कला निधि, आगम अलंकार पढ़ जानें। जाकी सुमति देख परवादी, विलखत होंय लाज उर आनें। जैसे सुनत नाद केहरि का, वन गयंद भाजत भय मानें। ऐसी महाबुद्धि के भाजन, पर मुनीश मद रंच न ठानैं ।
(२१) अज्ञान परीषह सावधान वर्ते निशि-वासर, संयम सूर परम वैरागी। पालत गुप्ति गये दीरघ दिन, सकल संग ममता पर त्यागी॥ अवधिज्ञान अथवा मनपर्यय, केवल ऋद्धि न अजहूँ जागी। यों विकल्प नहिं करें तपो निधि, सो अज्ञान विजयी बड़भागी॥
(२२) अदर्शन परीषह मैं चिरकाल घोर तप कीना, अजौं ऋद्धि अतिशय नहिं जागै। तप-बल सिद्धि होत सब सुनयत, सो कछु बात झूठ-सी लागे। यों कदापि चित में नहिं चिन्तत, समकित शुद्ध शान्ति रस पारौं। सोई साधु अदर्शन विजयी, ताके दर्शन से अघ भागें । किस कर्म के उदय से कौन-कौन से परीषह होते हैं -
(सवैया) ज्ञानावरणी तैं दोई प्रज्ञा अज्ञान होई,
एक महा मोह तैं अदरस बखानिये। अन्तराय कर्म सेती उपजै अलाभ दुख,
सप्त चारित्र मोहनीय के बल जानिये॥
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