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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह (१४) याचना परीषह धीर वीर तप करत तपोधन, भये क्षीण सूखो गलवांही। अस्थि चाम अवशेष रहो तन, नसा जाल झलकै तिसमाहीं॥ औषधि असन पान इत्यादिक, प्राण जाएँ पर जाचत नाहीं। दुर्द्धर अयाचीक व्रत धारै, करैं न मलिन धरम परछाहीं॥
(१५)अलाभ परीषह एक बार भोजन की बेला, मौन साध बस्ती में आवै। जो नहिं बनै योग्य भिक्षा विधि, तो महन्त मन खेद न लावै॥ ऐसे भ्रमत बहुत दिन बीतें, तब तप वृद्धि भावना भावें। यो अलाभ को परम परीषह, सहैं साधु सो ही शिव पावै॥
(१६) रोग परीषह वात पित्त कफ शोणित चारों, ये जब घटै बढ़े तनु माहीं। रोग, संयोग शोक जब उपजत, जगत जीव कायर हो जाहीं॥ ऐसी व्याधि वेदना दारुण, सहैं सूर उपचार न चाहैं। आतम लीन विरक्त देह सौं, जैन यती निज नेम निवाहैं।
(१७) तृण स्पर्श परीषह सूखे तृण अरु तीक्षण कांटे, कठिन कांकरी पाँय विदाएँ। रज उड़ आन पड़े लोचन में, तीर फाँस तनु पीर विथाएँ। तापर पर-सहाय नहिं वांछत, अपने कर मैं काढ़ न डारें। यों तृण परस परीषह विजयी, ते गुरु भव-भव शरण हमारें।
(१८) मल परीषह यावज्जीवन जल-न्हौन तजो जिन, नग्न रूप वन थान खड़े हैं। चलै पसेव धूप की बेला, उड़त धूल सब अंग भरे हैं। मलिन देह को देख महा-मुनि, मलिन भाव उर नाहिं करें हैं। यो मलजनित परीषह जीतें, तिनहिं हाथ हम सीस धरे हैं।
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