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बाईस परीषह ]
[ २३१ (९) चर्या परीषह चार हाथ परवान परख पथ, चलत दृष्टि इत उत नहिं तानैं। कोमल चरण कठिन धरती पर, धरत धीर बाधा नहिं मानें। नाग तुरंग पालकी चढ़ते, ते सर्वादि याद नहिं आनें। यों मुनिराज सहैं चर्या दुख, तब दृढ़ कर्म कुलाचल भानैं।
(१०) आसन परीषह गुफा मसान शैल तरु कोटर, निवसैं जहां शुद्ध भू हेरौं। परहित काल रहैं निश्चल तन, बार-बार आसन नहिं फेरैं। मानुष देव अचेतन पशुकृत, बैठे विपत्ति आन जब घेरें। ठौर न तजै भलै थिरता पद, ते गुरु सदा बसो उर मेरे॥
(११)शयन परीषह जो प्रधान सोने के महलन, सुन्दर सेज सोय सुख जोवें। ते अब अचल अंग एकासन, कोमल कठिन भूमि पर सोबैं॥ पाहन खण्ड कठोर कांकरी, गड़त कोर कायर नहिं होवें। ऐसो शयन परीषह जीतें, ते मुनि कर्म कालिमा धोवै॥
(१२) आक्रोश परीषह जगत जीव जीवन्त चराचर, सबके हित सबको सुखदानी। तिन्हें देख दुर्वचन कहैं खल, पाखण्डी ठग यह अभिमानी॥ मारो याहि पकड़ पापी को, तपसी भेष चोर है छानी। ऐसे वचन-बाण की बेला, क्षमा ढाल ओ मुनि ज्ञानी॥
(१३) वध-बन्धन परीषह निरपराध नि.र महामुनि, तिनको दुष्ट लोग मिल मारैं। कोई खैच खम्भसै बाँधे, कोई पावक में परजाएँ । तहाँ कोप करते न कदाचित्, पूरब कर्म विपाक विचारें। समरथ होय सह वध बन्धन, ते गुरु भव-भव शरण हमारे ।
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