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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह (४) उष्ण परीषह भूख प्यास पीडै उर अन्तर, प्रजुलैं आँत देह सब दागै। अग्नि सरूप धूप ग्रीष्म की, ताती वायु झाल-सी लागे । तपैं पहाड़ ताप तन उपजति, कोपै पित्त दाह ज्वर जागै। इत्यादिक गर्मी की बाधा, सहैं साधु धीरज नहिं त्यानें।
(५) डंसमसक परीषह डंसमश्क माखी तनु काटें, पी. वन पक्षी बहुतेरे । डसैं व्याल विषहारे बिच्छू, ल- खजूरे आन घनेरे ।। सिंह स्याल सुंडाल सतावें, रीछ रोझ दुःख देहिं घनेरे। ऐसे कष्ट सहैं समभावन, ते मुनिराज हरो अघ मेरे ।
(६) नग्न परीषह अन्तर विषय वासना वरतै, बाहर लोक-लाज भयभारी। याः परम दिगम्बर मुद्रा, धर नहिं सकैं दीन-संसारी॥ ऐसे दुद्धर नगन परीषह, जीतें साधु शील व्रतधारी। निर्विकार बालकवत् निर्भय, तिनके चरणों धोक हमारी॥
(७) अरति परीषह देश काल का कारण लहि कैं, होत अचैन अनेक प्रकारें। तब तहाँ खिन्न होत जगवासी, कल-मलाय थिरता पद छाड़ें। ऐसी अरति परीषह उपजत, तहाँ धीर धीरज उर धारें। ऐसे साधुन को उर अन्तर, बसो निरन्तर नाम हमारे ॥
(८) स्त्री परीषह जो प्रधान केहरि को पकड़े, पन्नग पकड़ पाँव से चाऐं। जिनकी तनक देख भौं बाँकी, कोटिन सूर दीनता जापैं। ऐसे पुरुष पहाड़ उड़ावन, प्रलय पवन तिय वेद पयापै। धन्य-धन्य वे सूर साहसी, मन सुमेर जिनका नहिं काँपैं।
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