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बाईस परीषह ]
[२२९ बाईस परीषह क्षुधा तृषा हिम ऊश्न डंसमशक दुख भारी। निरावरण-तन-अरति वेद-उपजावन नारी। चरया आसन शयन दुष्ट वायक वध बन्धन।
याचें नहीं अलाभ रोग तृण परस होय तन ।। मलजनित मान-सनमान वश, प्रज्ञा और अज्ञान कर। अदर्शन मलीन बाईस सब, साधु परीषह जान नर ।
(दोहा) सूत्र पाठ अनुसार ये, कहे परीषह नाम। इनके दुख को मुनि सहैं, तिन प्रति सदा प्रणाम ।।
(१) क्षुधा परीषह अनसन ऊनोदर तप पोषत, पक्ष मास दिन बीत गये हैं। जो नहिं बने योग्य भिक्षाविधि, सूख अंग सब शिथिल भये हैं। तब तहाँ दुस्सह भूख की वेदन, सहत साधु नहिं नेक नये हैं। तिनके चरण कमल प्रति प्रतिदिन, हाथ जोड़ हम शीश नये हैं।
(२) तृषा परीषह पराधीन मुनिवर की भिक्षा, पर घर लेंय कहैं कुछ नाहीं। प्रकृति विरुद्ध पारणा भुंजत, बढ़त प्यास की त्रास तहाँ ही ॥ ग्रीष्म काल पित्त अति कौपै, लोचन दोय फिरे जब जाहीं। नीर न चहैं सहैं ऐसे मुनि, जयवन्ते वर्तो जग माहीं॥
(३) शीत परीषह शीत काल सबही जन कम्पत, खड़े तहाँ वन वृक्ष डहे हैं। झंझा वायु चलै वर्षा ऋतु, वर्षत बादल झूम रहे हैं। तहाँ धीर तटनी तट चौपट, ताल पाल पर कर्म दहे हैं। सहैं संभाल शीत की बाधा, ते मुनि तारण-तरण कहे हैं।
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