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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह अमरापुर के सुख कीने, मनवांछित भोग नवीने।
उर माल जबै मुरझानी, विलख्यो आसन मृतु जानी॥ मृतु जान हाहाकर कीनौं, शरण अब काकी गहौं। यह स्वर्ग सम्पति छोड़ अब, मैं गर्भवेदन क्यों सहौं। तब देव मिलि समुझाइयो, पर कछु विवेक न उर वस्यो। सुरलोक गिरिसों गिरि अज्ञानी, कुमति-कादौं फिर फस्यौ ॥५॥
इहविध इस मोही जी ने, परिवर्तन पूरे कीने।
तिनकी बहु कष्ट कहानी, सो जानत केवलज्ञानी॥ ज्ञानी बिना दुख कौन जाने, जगत वन में जो लह्यो। जर-जन्म-मरण-स्वरूप तीछन, त्रिविध दावानल दह्यो।। जिनमत सरोवर शीत पर, अब बैठ तपन बुझाय हो। जिय मोक्षपुर की बाट बूझौ, अब न देर लगाय हो ॥६॥
यह नरभव पाय सुज्ञानी, कर-कर निज कारज प्रानी। तिर्जंच योनि जब पावै, तब कौन तुझे समझावै॥ समझाय गुरु उपदेश दीनों, जो न तेरे उर रहै। तो जान जीव अभाग्य अपनो, दोष काहू को न है। सूरज प्रकाशै तिमिर नाशै, सकल जग को तम हरै। गिरि-गुफा-गर्भ-उदोत होत न, ताहि भानु कहा करै॥७॥
जगमाहि विषयन फूल्यो, मनमधुकर तिहिं विच भूल्यो। रसलीन तहाँ लपटान्यो, रस लेत न रंच अघान्यो। न अघाय क्यों ही रमैं निशिदन, एक छिन हू ना चुकै। नहिं रहै बरज्यो बरज देख्यो, बार-बार तहाँ ढुकै। जिनमत सरोज सिद्धान्त सुन्दर, मध्य याहि लगाय हो। अब ‘रामकृष्ण' इलाज याकौ, किये ही सुख पाय हो ॥८॥
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