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भक्तामर स्तोत्र ]
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अल्पश्रुत हूँ श्रुतवानों से, हास्य कराने का ही धाम । करती है वाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम ॥ करती मधुर गान पिक मधु में, जगजन मनहर अति अभिराम । उसमें हेतु सरस फल-फूलों से युत हरे-भरे तरु - आम ||६ ॥
जिनवर की स्तुति करने से, चिरसंचित भविजन के पाप । पल भर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप ॥ सकललोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त । प्रातः रवि की उग्रकिरण लख, हो जाता क्षण में प्राणान्त ॥७
मैं मतिहीन - दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघहान । प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, सन्तों का निश्चय से मान ॥ जैसे कमल - पत्र पर जलकण, मोती जैसे आभावान दिपते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हे भगवान ॥८ ॥
दूर रहे स्तोत्र आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष । पुण्य- कथा ही किन्तु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष ॥ प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर । फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ॥९ ॥
त्रिभुवन तिलक जगत्पति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य्य! सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नही अधिक आश्चर्य ॥ स्वाश्रितजन को निजसम करते, धनी लोग धन धरनी से । नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या, उन धनिकों की करनी से ॥१० ॥
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