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सूवा बत्तीसी ]
[ २२५ ता तर विषय भोग अन धरे, सुवटै जान्यो ये सुख खरे।। उतरे विषय सुखन के काज, बैठ नलिनपै विलसै राज ॥६॥ बैठो लोभ नलिनपै जबै, विषय-स्वाद रस लटक्यो तबै। लटकत तरै उलटि गये भाय, तरमुंडी ऊपर भये पाँव ॥७॥ नलनी दृढ़ पकरे पुनि रहै, मुख” वचन दीनता कहै। कोउ न तहाँ छुड़ावनहार, नलिनी पकरे करहि पुकार ॥८॥ पढ़त रहै गुरू के सब बैन, जे-जे हितकर रखिये ऐन। सुवटा वन में उड़ जिन जाहु, जाहु तो भूल चुगा जिन खाहु ॥९॥ नलनी के जिन जइयो तीर, जाहु तो तहाँ न बैठहु वीर। जो बैठो तो दृढ़ जिन गहो, जो दृढ़ गहो तो पकरि न रहो ॥१०॥ जो पकरो तो चुगा न खइयो, जो तु खाव तो उलट न जइयो। जो उलटो तो तज भज धइयो, इतनी सीख हृदय में लहियो॥११॥ ऐसे वचन पढ़त पुन रहै, लोभ नलिन तज भज्यो न चहै। आयो दुर्जन दुर्गति रूप, पकड़े सुवटा सुन्दर भूप ॥१२॥ डारे दुःख के जाल मंझार, सो दुख कहत न आवै पार। भूख-प्यास बहु संकट सहै, परवस पस्यो महा दुख लहै ॥१३॥ सुवटा की सुधि-बुधि सब गई, यह तो बात और कछु भई। आय परयो दुखसागर माहिं, अब इतनैं कितको भज जाहिं ॥१४॥ केतो काल गयो इह ठौर, सुवटै जिय में ठानी और। यह दुख जाल कटै किह भांति, ऐसी मन में उपजी ख्याति ॥१५॥ रात-दिना प्रभु सुमरन करै, पाप-जाल काटन चित धरै। क्रम-क्रम कर काट्यो अघजाल, सुमरत फल भयो दीनदयाल ॥१६॥ अब इत” जो भजकैं जाऊँ, तौ नलनी पर बैठ न खाऊँ। पायो दाव भज्यो ततकाल, तज दुर्जन दुर्गति जंजाल ॥१७॥ आयो उड़त बहुरि वन माँहि, बैठ्यो नरभवद्रुम की छाँहि। तित इक साधु महा मुनिराय, धर्म देशना देत सुभाय ॥१८॥
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