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________________ २२४] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह एकत्व ज्ञानमय ध्रुव स्वभाव ही, एक मात्र सुन्दर जग में।। जिसकी परिणति उसमें ठहरे, वह स्वयं विचरती शिवमग में॥१३॥ वह समवसरण में सिंहासन पर, गगन मध्य शोभित होता। रत्नत्रय के भूषण पहने, अपनी प्रभुता को प्रगटाता ॥१४॥ पर नहीं यहाँ भी इतिश्री, योगों को तज स्थिर होता। अरु एक समय में सिद्ध हुआ, लोकाग्र जाय अविचल होता ॥१५॥ सूवा बत्तीसी (दोहा) नमस्कार जिनदेव को, करों दुहू कर जोर । सुवा बत्तीसी सरस मैं, कहूँ अरिनदल मोर ॥१॥ आतम सुआ सुगरु-वचन, पढ़त रहै दिन रैन। करत काज अघरीति के, यह अचरज लखि नैन ॥२॥ सुगुरु पढ़ावै प्रेम सों, यहू पढ़त मन लाय। घट के पट जे ना खुलैं, सबहि अकारथ जाय ॥३॥ (चौपाई) सुवा पढ़ावै सुगुरु बनाय, करम वनहि जिन जइयो भाय। भूल चूककर कबहु न जाहु, लोभ नलिनि पै चुगा न खाहु॥१॥ दुर्जन मोह दगा के काज, बाँधी नलिनी तल धर नाज। तुम जिन बैठहु सुवा सुजान, नाज विषयसुख लहि तिहँथान ॥२॥ जो बैठहु तो पकरि न रहो, जो पकरो तो दृढ़ जिन गहो। जो दृढ़ गहो तो उलटि न जाव, जो उलटो तो तजि भजि धाव ॥३॥ इहविध सुआ पढ़ाओ नित्त, सुवटा पढिकै भयो विचित्त। पढ़त रहै निशदिन ये बैन, सुनत लहैं सब प्रानी चैन॥४॥ इक दिन सुवटै आई मनै, गुरु संगत तज भज गये वनै। वन में लोभ नलिन अति बनी, दुर्जन मोह दगा कों तनी ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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