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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह यह संसार कर्मवन रूप, तामहिं चेतन सुआ अनूप। पढ़त रहै गुरु वचन विशाल, तौहु न अपनी करै संभाल ॥१९॥ लोभ नलिन पै बैठ्यो जाय, विषय स्वादरस लटक्यो आय। पकरहि दुर्जन दुर्गति परै, तामें दुःख बहुते जिय भरै ॥२०॥ सो दुख कहत में आवै पार, जानत जिनवर ज्ञान मार। सुनतहि सुवटो चौंक्यो आप, यह तो मोह परयो सब पाप ॥२१॥ ये दुख तौ सब मैं ही सहे, जो मुनिवर ने मुख” कहे। सुवटा सोचे हिये मँझार, ये गुरु साँचे तारनहार ॥२२॥ मैं शठ फिस्यो करमवन माहिं, ऐसे गुरु कहुँ पाये नाहिं। अब मोहि पुण्य उदै कछु भयो, साँचे गुरु को दर्शन लयो ॥२३॥ गुरु की थुति कर बारम्बार, सुवटा सोचे हिये मँझार। सुमरत आप पाप भज गयो, घट के पट खुल सम्यक् थयो।॥२४॥ समकित होत लखी सब बात, यह मैं यह परद्रव्य विख्यात । चेतन के गुण निजमहिं धरे, पुद्गल रागादिक परिहरे ॥२५॥ आप मगन अपने गुणमाहिं, जन्म-मरण भय जिनको नाहिं। सिद्ध समान निहारत हिये, कर्मकलंक सबहि तज दिये ।।२६ ।। ध्यावत आप माहिं जगदीश, दुहं पद एक विराजत ईश। इहविधि सुवटो ध्यावत ध्यान, दिन-दिन प्रति प्रगटत कल्यान ॥२७॥ अनुक्रम शिवपद जिय को भयो, सुख अनन्त विलसत नित नयो। सत् संगति सबको सुख देय, जो कछु हिय में ज्ञान धरेय ॥२८॥ केवलिपद आतम अनुभूत, घट-घट राजत ज्ञान संजूत। सुख अनन्त विलसे जिय सोय, जाके निजपद परगट होय॥२९॥ सुवा बत्तीसी सुनहु सुजान, निजपद प्रगटत परम निधान। सुख अनन्त विलसह ध्रुव नित्त, 'भैया' की विनती धर चित्त ॥३०॥ सम्वत् सत्रह त्रैपन माहिं, आश्विन पहले पक्ष कहाहिं। दशमी दशों दिशा परकाश, गुरु संगति तैं शिवसुखभास ॥३१॥
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