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ब्रह्मचर्य द्वादशी ]
[ २२१ भोगों का घेरा ऐसा है, बाहर वाले ललचावें। फंसने वाले भी पछतावें, सुख नहीं कोई पावे ॥ धोखे में आवे नहीं ज्ञानी, शुद्धातम की प्रीति धरी ॥३॥
पहले तो मिलना ही दुर्लभ, मिल जावें तो भोग कठिन।
भोगों से तृष्णा ही बढ़ती, इनसे होना तृप्ति कठिन॥ पाप कमावे धर्म गमावे, घूमे भव की गली-गली ॥४॥
बत्ती तेल प्रकाश नाश ज्यों, दीपक धुआँ उगलता है।
रत्नत्रय को नाश मूढ़, भोगों में फंसकर हँसता है। सन्निपात का ही यह हँसना, सन्मुख जिसके मौत खड़ी ॥५॥ सर्वव्रतों में चक्रवर्ती अरु, सब धर्मों में सार कहा।
अनुपम महिमा ब्रह्मचर्य की, शिवमारग शिवरूप अहा।। ब्रह्मचर्य धारी ज्ञानी के, निजानन्द की झरे झड़ी ॥६॥
पर-स्त्री-संग त्याग मात्र से, ब्रह्मचर्य नहिं होता है। पंचेन्द्रिय के विषय छूट कर, निज में होय लीनता है। अतीचार जहाँ लगे न कोई, ब्रह्म भावना घड़ी-घड़ी ॥७॥
सर्व कषायें अब्रह्म जानो, राग कुशील कहा दुखकार
सर्व विकारों की उत्पादक, पर-दृष्टि ही महा विकार ॥ द्रव्यदृष्टि शुद्धात्म लीनता, ब्रह्मचर्य सुखकार यही ॥८॥
सबसे पहले तत्त्वज्ञान कर, स्वपर भेद-विज्ञान करो। निजानन्द का अनुभव करके, भोगों में सुखबुद्धि तजो॥ कोमल पौधों की रक्षा हित, शील बाढ़ नौ करो खड़ी॥९॥
समता रस से उसे सींचना, सादा जीवन तत्त्व विचार।
सत्संगति अरु ब्रह्म भावना, लगे नहिं किंचित् अतिचार । कमजोरी किंचित् नहीं लाना, बाधायें हों बड़ी-बड़ी ॥१०॥
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