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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह व्याकुल होना तो, दुख से बचने का कोई उपाय नहीं।
होगा भारी पाप बंध ही, होवे भव्य उपाय नहीं। ज्ञानाभ्यास करो मन माहीं, दुर्विकल्प दुखरूप तजो ॥४॥ व्यग्र. ॥
अपने में सर्वस्व है अपना, परद्रव्यों में लेश नहीं।
हो विमूढ़ पर में ही क्षण-क्षण, करो व्यर्थ संक्लेश नहीं। अरे विकल्प अकिंचित्कर ही, ज्ञाता हो ज्ञाता ही रहो।।५॥ व्यग्र.॥
अन्तर्दृष्टि से देखो नित, परमानन्दमय आत्मा।
स्वयंसिद्ध निर्द्वन्द्व निरामय, शुद्ध बुद्ध परमात्मा ।। आकुलता का काम नहीं कुछ, ज्ञानानन्द का वेदन हो ॥६॥ व्यग्र. ॥
सहज तत्त्व की सहज भावना, ही आनन्द प्रदाता है।
जो भावे निश्चय शिव पावे, आवागमन मिटाता है। सहजतत्त्व ही सहज ध्येय है, सहजरूप नित ध्यान धरो॥७ ।। व्यग्र. ॥
उत्तम जिन वचनामृत पाया, अनुभव कर स्वीकार करो।
पुरुषार्थी हो स्वाश्रय से इन, विषयों का परिहार करो॥ ब्रह्मभावमय मंगल चर्या, हो निज में ही मग्न रहो॥८॥ व्यग्र. ॥
ब्रह्मचर्य द्वादशी ब्रह्मचर्य की अद्भुत महिमा, आज बताऊँ भली-भली। ब्रह्मचर्य बिन जीवन निष्फल, बात कहूँ मैं खरी-खरी ।।टेक॥
निज सुख शान्ति निज में ही है, बाहर कहीं न पाओगे। व्यर्थ भ्रमे हो और भ्रमोगे, समय चूक पछताओगे। भोगों में तो फँस कर भाई, तुमने भारी विपद भरी ॥१॥
जैसे बड़ी-बड़ी नदियों पर, बाँध बँधे देखे होंगे॥
सोचो बाँध टूट जावे तो, क्यों नहीं नगर नष्ट होंगे। ब्रह्मचर्य का बाँध टूटने से, बरबादी घड़ी-घड़ी ॥२॥
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