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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह मर्यादा का करें उल्लंघन, जग में भी संकट पावें।
निज मर्यादा में आते ही, संकट सारे मिट जावें॥ निज स्वभाव सीमा में आओ, पाओ अविचल मुक्ति मही॥११॥
चिंता छोड़ो स्वाश्रय से ही, सर्व विकल्प नशायेंगे।
कर्म छोड़ खुद ही भागेंगे, गुण अनन्त प्रगटायेंगे। 'आत्मन्' निज में ही रम जाओ, आई मंगल आज घड़ी ॥१२॥
अपना स्वरूप रे जीव ! तू अपना स्वरूप देख तो जरा।
दृग-ज्ञान-सुख-वीर्य का भण्डार है भरा ॥टेक॥ न जन्मता मरता नहीं, शाश्वत प्रभु कहा।
उत्पाद व्यय होते हुये भी ध्रौव्य ही रहा ॥१॥ पर से नहीं लेता नहीं देता तनिक पर को।
निरपेक्ष है पर से स्वयं में पूर्ण ही अहा ॥२॥ कर्ता नहीं भोक्ता नहीं स्वामी नहीं पर का।
अत्यंताभाव रूप से ज्ञायक ही प्रभु सदा ॥३॥ पर को नहीं मेरी कभी मुझको नहीं पर की।
__जरूरत पड़े सब परिणमन स्वतंत्र ही अहा ॥४॥ पर दृष्टि झूठी छोड़कर निज दृष्टि तू करे।
निज में ही मग्न होय तो आनन्द हो महा ॥५॥ बस मुक्तिमार्ग है यही निज दृष्टि अनुभवन।
निज में ही होवे लीनता शिव पद स्वयं लहा॥६॥ 'आत्मन्' कहूँ महिमा कहाँ तक आत्म भाव की।
जिससे बने परमात्मा शुद्धात्म वह कहा ॥७॥
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