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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह पर पदार्थ के इष्टयोग को, साधु समझते हैं आपत्ति । धनिकों के संगम को समझें, मन में भारी दुःखद विपत्ति ॥ धन मदिरा के तीव्रपान से, जो भूपति उन्मत्त महान । उनका तनिक समागम भी तो, लगता मुनि को मरण समान ॥९ ॥ सुखदायक गुरुदेव वचन जो, मेरे मन में करें प्रकाश । फिर मुझको यह विश्व शत्रु बन, भले सतत दे नाना त्रास ॥ देन जगत भोजन तक मुझको, हो न पास में मेरे वित्त । देख नग्न उपहास करें जन, तो भी दुःखित नहीं हो चित्त ॥१०॥ दुःख व्याल से पूरित भव वन, हिंसा अघद्रुम जहाँ अपार । ठौर-ठौर दुर्गति-पल्लीपति, वहाँ भ्रमे यह प्राणि अपार ॥ सुगुरु प्रकाशित दिव्य पंथ में, गमन करे जो आप मनुष्य । अनुपम - निश्चल मोक्षसौख्य को, पा लेता वह त्वरित अवश्य ॥११॥ साता और असाता दोनों कर्म और उसके हैं काज । इसीलिए शुद्धात्म तत्त्व से, भिन्न उन्हें माने मुनिराज ॥
भेद भावना में ही जिनका, रात-दिवस रहता है वास । सुख-दुःख जन्य विकल्प कहाँ से, रहते ऐसे भवि के पास ॥१२॥ देव और प्रतिमा पूजन का, भक्ति भाव सह रहता ध्यान। सुनें शास्त्र गुरुजन को पूजें, जब तक है व्यवहार प्रधान ॥ निश्चय से समता से निज में, हुई लीन जो बुद्धि विशिष्ट । वही हमारा तेज पुंजमय, आत्मतत्त्व सबसे उत्कृष्ट ॥१३॥ वर्षा हरे हर्ष को मेरे, दे तुषार तन को भी त्रास । तपे सूर्य मेरे मस्तक पर, काटें मुझको मच्छर डांस ॥ आकर के उपसर्ग भले ही, कर दें इस काया का पात । नहीं किसी से भय है मुझको, जब मन में है तेरी बात ॥१४ ॥ मुख्य आँख इन्द्रिय कर्षकमय, ग्राम सर्वथा मृतक समान। रागादिक कृषि से चेतन को, भिन्न जानना सम्यक्ज्ञान॥
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