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________________ परमार्थ विंशतिका ] [२१५ छूती उसे न भय की ज्वाला, जो है समता रस में लीन। वन्दनीय वह आत्म-स्वस्थता, हो जिससे आत्मीक सुख पीन॥२॥ एक स्वच्छ एकत्व ओर भी, जाता है जब मेरा ध्यान। वही ध्यान परमात्म तत्त्व का, करता कुछ आनन्द प्रदान ॥ शील और गुण युक्त बुद्धि जो, रहे एकता में कुछ काल। हो प्रगटित आनन्द कला वह, जिसमें दर्शन ज्ञान विशाल ॥३॥ नहीं कार्य आश्रित मित्रों से, नहीं और इस जग से काम। नहीं देह से नेह लेश अब, मुझे एकता में आराम ।। विश्वचक्र में संयोगों वश, पाये मैंने अतिशय कष्ट । हुआ आज सबसे उदास मैं, मुझे एकता ही है इष्ट ॥४॥ जाने और देखता सबको, रहे तथा चैतन्य स्वरूप। श्रेष्ठ तत्त्व है वही विश्व में, उसी रूप मैं नहिं पररूप। राग द्वेष तन मन क्रोधादिक, सदा सर्वथा कर्मोत्पन्न । शत-शत शास्त्र श्रवण कर मैंने, किया यही दृढ़ यह सब भिन्न ॥५॥ दुषमकाल अब शक्ति हीन तनु, सहे नहीं परीषह का भार। दिन-दिन बढ़ती है निर्बलता, नहीं तीव्र तप पर अधिकार ॥ नहीं कोई दिखता है अतिशय, दुष्कर्मों से पाऊँ त्रास। इन सबसे क्या मुझे प्रयोजन, आत्मतत्त्व का है विश्वास ॥६॥ दर्शन ज्ञान परम सुखमय मैं, निज स्वरूप से हूँ द्युतिमान। विद्यमान कर्मों से भी है, भिन्न शुद्ध चेतन भगवान ॥ कृष्ण वस्तु की परम निकटता, बतलाती मणि को सविकार। शुद्ध दृष्टि से जब विलोकते, मणि स्वरूप तब तो अविकार ॥७॥ राग- द्वेष वर्णादि भाव सब, सदा अचेतन के हैं भाव। हो सकते वे नहीं कभी भी, शुद्ध पुरुष के आत्मस्वभाव ॥ तत्त्व-दृष्टि हो अन्तरंग में, जो विलोकता स्वच्छ स्वरूप। दिखता उसको परभावों से, रहित एक निज शुद्ध स्वरूप ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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