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________________ परमार्थ विंशतिका ] [२१७ जो कुछ होना हो सो होगा, करूँ व्यर्थ ही क्यों मैं कष्ट ? विषयों की आशा तज करके, आराधू मैं अपना इष्ट ॥१५॥ कर्मों के क्षय से उपशम से, अथवा गुरु का पा उपदेश। बनकर आत्मतत्त्व का ज्ञाता, छोड़े जो ममता नि:शेष ।। करे निरन्तर आत्म-भावना, हों न दुःखों से जो संतप्त। ऐसा साधु पाप से जग में, कमलपत्र सम हो नहिं लिप्त ॥१६॥ गुरु करुणा से मुक्ति प्राप्ति के, लिए बना हूँ मैं निर्ग्रन्थ । उसके सुख से इन्द्रिय सुख को, माने चित्त दुःख का पंथ ॥ अपनी भूल विवश नर तब तक, लेता रहा खली का स्वाद। जब तक उसे स्वच्छ मधु रसमय, नहीं शर्करा का हो स्वाद ॥१७॥ ध्यानाश्रित निर्ग्रन्थ भाव से, मुझे हुआ है जो आनन्द। दुर्ध्यानाक्ष सुखों का तो फिर, कैसे करे स्मरण मतिमन्द? ऐसा कौन मनुज है जग में, तज करके जो जलता गेह। छोड़ वापिका का शीतल जल, पड़े अग्नि में आप सनेह ॥१८॥ मोह जन्य मोक्षाभिलाष भी, करे मोक्ष का स्वयं विरोध । अन्य द्रव्य की करें न इच्छा, जिन्हें तत्त्व का है शुभ बोध ॥ आलोचन में दत्तचित्त नित, शुद्ध आत्म का जिन्हें विचार । तत्त्वज्ञान में तत्पर मुनिजन, ग्रहें नहीं ममता का भार ॥१९॥ इस निर्मल चेतन के सुख का, जिस क्षण आता है आस्वाद। विषय नष्ट होते सारे तब, रस समस्त लगते नि:स्वाद। होती दूर देह की ममता, मन वाणी हो जाते मौन। गोष्ठी कथा, कुतूहल छूटें, उस सुख को नर जाने कौन ॥२०॥ वचनातीत, पक्षच्युत सुन्दर निश्चय नय से है यह तत्त्व। व्यवहृति पथ में प्राप्त शिष्य, वचनों द्वारा समझें आत्मत्त्व। करूँ तत्त्व का दिव्य कथन मैं, नहीं यहाँ वह शक्ति समृद्धि। जान अशक्त आपको इसमें, मौन रहे मुझसा जड़ बुद्धि।।२१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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