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________________ २१२] [ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह सुखप्रद वही एक है जीवन, जहाँ स्वच्छ है तत्त्व प्रधान। बाकी तो मनुजों का जीवन, सचमुच तो है मृतक समान ॥१०॥ सुखदायक क्या हुए किसी को, जगती में ये भीषण भोग। अहि समान विकराल सर्वथा, जीवों को इनका संयोग। छली मित्र सम ऊपर से ये, दिखते हैं सुन्दर अत्यन्त। पर इनकी रुचि मात्र विश्व में, कर देती जीवन का अन्त ॥११॥ स्पर्शन इन्द्रिय के वश ही, देखो वनगज भी बलबान। पड़कर के बन्धन में सहसा, सहता अविरल कष्ट महान ॥ मरती स्वयं पाश में फंसकर, रसनासक्त चपल जलमीन। सुध-बुध खो देता है अपनी, भ्रमर कमल में होकर लीन ॥१२॥ दीपक पर पड़कर पतंग भी, देता चक्षु विवश निज प्राण। सुनकर हिंसक-शब्द मनोहर, रहता नहीं हिरन को ध्यान॥ एक विषय में लीन जीव जब, पाता इतने कष्ट अपार। पाँच इन्द्रियों के विषयों में, लीन सहेगा कितनी मार ॥१३॥ जनम-जनम में की है चेतन, तूने सुख की ही अभिलाष । हुआ नहीं फिर भी किञ्चित् कम, अब तक भी तेरा भववास॥ त्रिविध ताप से जलता रहता, अन्तरात्मा है दिन-रात। कर सत्त्वर पुरुषार्थ सत्य तू, जग प्रपञ्च में देकर लात ॥१४॥ रोगों का जिसमें निवास है, अशुचि पिण्ड ही है यह देह। देख कौन सी इसमें सुषमा, करता है तू इस पर नेह॥ तेरे पीछे लगा हुआ है, हा! अनादि का मोह पिशाच। छुड़ा स्वच्छ रत्नों को प्रतिपल, ग्रहण कराता रहता काँच॥१५॥ भूल आप को क्षणिक देह में, तुझे हुआ जो राग अपार। बढ़ता रहता राग-द्वेष से, महादुःखद तेरा संसार ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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