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आत्म संबोधन
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त्याग देह की ममता सारी, सुद्गुरुओं के चरण उपास । तो छूटेगा यहाँ सहज में, तेरा दुःखदायी भवपाश ॥१६ ॥ जड़ तन में आत्मत्वबुद्धि ही, सकल दुखों का है दृढ़मूल । देहाश्रित भावों को अपना, मान भंयकर करता भूल ॥ जो-जो तन मिलता है तुझको, उसी रूप बन जाता आप । फिर उसके परिवर्तन को लख, होता है तुझको संताप ॥ १७ ॥ हो विरक्त तू भव भोगों से, ले श्री जिनवर का आधार । रहकर सत्सङ्गति में निशदिन, कर उत्तम निजतत्त्व विचार ॥ निज विचार बिन इन कष्टों का, होगा नहीं कभी भी अन्त । दुःख का हो जब नाश सर्वथा, विकसित हो तब सौख्य बंसत ॥१८॥ बिन कारण ही अन्य प्राणियों, पर करता रहता है रोष । 'मैं महान' कर गर्व निरन्तर, मन में धरता है सन्तोष ॥ बना रहा जीवन जगती में, यह मानव बन कपट प्रधान। निज का वैभव तनिक न देखा, पर का कीना लोभ निदान ॥ १९ ॥ करमबन्ध होता कषाय से, करो प्रथम इनका संहार । राग-द्वेष की ही परिणति से, होता है विस्तृत संसार ।। दुःख की छाया में बैठे हैं, मिलकर भू पर रंक नरेश । प्रगट किसी का दुःख दिखता है, और किसी के मन में क्लेश ॥२०॥ जिन्हें समझता सुख निधान तू, पूछ उन्हीं से मन की बात । कर निर्धार सौख्य का सत्त्वर, करो मोह राजा का घात। जिन्हें मानता तू सुखदायक, मिली कौन-सी उनसे शान्ति । दुख में होती रही सहायक, दिन दूनी तेरी ही भ्रान्ति ॥ २१ ॥ कर केवल अब आत्मभावना, पर- विषयों से मुख को मोड़। मोक्षसाधना में निजमन को, तज विकल्प पर निशदिन जोड़ ॥
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