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________________ आत्म सम्बोधन ] [२११ आत्मशान्ति मिलती कब धन से, चिन्ताओं का है वह गेह। होने देता नहीं तनिक भी, मोक्ष साधनों से शुभ नेह ॥४॥ दुग्धपान से ज्यों सर्पो में, होता अधिक गरल विस्तार । धन संचय से त्यों बढ़ते हैं, कभी-कभी मन में कुविचार ।। इसकी वृद्धि कभी मानव को, अहो बना देती है अन्ध। दुखिया से मिलने में इसको, आती हाय! महा दुर्गन्ध ॥५॥ हे चेतन धन की ममता वश, भोगे तुमने कष्ट अपार । देखो अपने अमर द्रव्य को, जहाँ सौख्य का पारावार । देवों का वैभव भी तुमको, करना पड़ा अन्त में त्याग। तो अब प्रभु के पदपंकज में, बनकर भ्रमर करो शुभ राग ॥६॥ इन्द्र-भवन से बनवाता है, सुख के लिए बड़े प्रसाद। क्यों तेरे यह संग चलेंगे, इसको भी तू करना याद ।। इस तन में से जिस दिन चेतन, कर जायेगा आप प्रयाण। जाना होगा उस घर से ही, तन को बिना रोक शमशान ॥७॥ अपना-अपना मान जिन्हें तू, खिला-पिलाकर करता पुष्ट । अवसर मिलने पर वे ही जन, करते तेरा महा-अनिष्ट ।। ऐसी-ऐसी घटनाओं से, भरे हुए इतिहास पुराण। पढ़कर सुनकर नहीं समझता, यही एक आश्चर्य महान ।।८।। क्षण-क्षण करके नित्य निरन्तर, जाता है जीवन का काल। करता नहीं किन्तु यह चेतन, क्षण भर भी अपनी सम्भाल । दुःख इसे देता रहता है, इसका ही भीषण अज्ञान। सत्पुरुषों से रहे विमुख नित, प्रगटे लेश न सम्यग्ज्ञान ॥९॥ मिला तुझे है मानव का भव, कर सत्त्वर ऐसा सदुपाय। मिले सौख्यनिधि अपनी उत्तम, जनम-मरण का दुःख टल जाय॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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