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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह इत्यादिक सम्पति बहुतेरी, जीरणतृण सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुत को, राज्य दियो बड़भागी ॥१५॥ होय निःशल्य अनेक नृपति संग, भूषण वसन उतारे। श्रीगुरु चरण धरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे । धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज धारी। ऐसी सम्पति छोड़ बसे वन, तिनपद धोक हमारी ॥१६॥
(दोहा) परिग्रह पोट उतार सब, लीनो चारित पंथ। निजस्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरग्रंथ ॥१७॥
वराज
वैराग्य पच्चीसिका रागादिक दूषण तजे, वैरागी जिनदेव। मन वच शीश नवाय के, कीजे तिनकी सेव॥१॥ जगत मूल यह राग है, मुक्ति मूल वैराग। मूल दुहुन को यह कह्यो, जाग सकै तो जाग॥२॥ क्रोध मान माया धरत, लोभ सहित परिणाम। ये ही तेरे शत्रु हैं, समझो आतम राम ॥३॥ इनहीं चारों शत्रु को, जो जीते जगमाहिं। सो पावहिं पथ मोक्ष को, यामें धोखो नाहिं।।४॥ जा लक्ष्मी के काज तू, खोवत है निज धर्म। सो लक्ष्मी संग ना चले, काहे भूलत मर्म।।५।। जा कुटुम्ब के हेत तू, करत अनेक उपाय। सो कुटुम्ब अगनी लगा, तोकों देत जराय॥६॥ पोषत है जा देह को, जोग त्रिविध के लाय। सो तोकों छिन एक में, दगा देय खिर जाय ॥७॥
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