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वैराग्य भावना ]
[२०७ सप्त कुधातु भरी मल मूरत, चाम लपेटी सोहै। अन्तर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है। नव मल द्वार स्रनै निशि-वासर, नाम लिये घिन आवै। व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै॥९॥ पोषत तो दुःख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै। दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढावै॥ राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है। यह तन पाय महातप कीजै, यामैं सार यही है ॥१०॥ भोग बुरे भव रोग बढाबें, बैरी हैं जग जीके। बेरस होंय विपाक समय अति, सेवत लागैं नीके। वज्र अगिनि विष से विषधर से, ये अधिके दुःखदाई। धर्म रतन के चोर चपल अति, दुर्गति पंथ सहाई ॥११॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जानै। ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन मानै ।। ज्यों-ज्यों भोग संजोग मनोहर, मन वांछित जन पावै। तृष्णा नागिन त्यों-त्यों डंकै, लहर जहर की आवै॥१२॥ मैं चक्रीपद पाय निरन्तर, भोगे भोग घनेरे । तो भी तनक भये नहिं पूरन, भोग मनोरथ मेरे । राज समाज महा अघ कारण, बैर बढ़ावन हारा। वेश्या सम लक्ष्मी अति चंचल, याका कौन पतियारा ॥१३॥ मोह महारिपु बैर विचारयो, जगजिय संकट डारे। तन कारागृह वनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण-तप, ये जिय के हितकारी। ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ॥१४॥ छोड़े चौदह रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग साथी। कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी॥
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