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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेमंकर मुनि वन्दे। देखें श्रीगुरु के पद पंकज, लोचन अलि आनन्दे ॥२॥ तीन प्रदक्षिण दे शिर नायो, कर पूजा थुति कीनी। साधु समीप विनय कर बैठ्यौ, चरनन में दिठि दीनी॥ गुरु उपदेश्यो धर्म शिरोमणि, सुन राजा वैरागे। राज-रमा-वनितादिक जे रस, ते रस बरस लागे ॥३॥ मुनिसूरज कथनी किरणावलि, लगत भरमबुधि भागी। भवतनभोग स्वरूप विचारयो, परम धरम अनुरागी॥ इह संसार महावन भीतर, भ्रमते ओर न आवै ॥ जामन मरन जरा दव दाझै, जीव महादुख पावै॥४॥ कबहूँ जाय नरक थिति भुंजै, छेदन-भेदन भारी। कबहूँ पशु परजाय धरै तहँ, वध-बंधन-भयकारी॥ सुरगति में पर-संपत्ति देखे, राग उदय दुःख होई। मानुषयोनि अनेक विपत्तिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥५॥ कोई इष्ट वियोगी विलखै, कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिद्री विगूचे, कोई तन के रोगी॥ किसही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम भाई। किसही के दुःख बाहिर दीखे, किस ही उर दुचिताई ॥६॥ कोई पुत्र बिना नित झूरै, होय मरै तब रोवै। खोटी संतति सों दुःख उपजै, क्यों प्रानी सुख सोवै॥ पुण्य उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुख साता। यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुःख दाता ।।७।। जो संसार विर्षे सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे। काहे को शिव साधन करते, संजम सों अनुरागे॥ देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई। सागर के जल सों शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ॥८॥
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