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समाधि भावना
[२०५ समाधि-भावना दिन रात मेरे स्वामी मैं भावना ये भाऊँ।
देहान्त के समय में तुमको न भूल जाऊँटेक॥ शत्रु अगर कोई हो सन्तुष्ट उनको कर दूं।
समता का भाव धर कर, सबसे क्षमा कराऊँ॥१॥ त्याD अहार पानी, औषध विचार अवसर।
टूटे नियम न कोई, दृढ़ता हृदय में लाऊँ ॥२॥ जागें नहीं कषायें नहिं वेदना सतावे।
तुम से ही लौ लगी हो, दुर्ध्यान को भगाऊँ।३ ।। आतम स्वरूप अथवा, आराधना विचारूँ।
अरहन्त सिद्ध साधु, रटना यही लगाऊँ॥४॥ धर्मात्मा निकट हों, चरचा धर्म सुनावें।
वे सावधान रक्खें, गाफिल न होने पाऊँ ।।५ ॥ जीने की हो न वाँछा, मरने की हो न इच्छा।
परिवार मित्र जन से मैं मोह को हटाऊँ॥६॥ भोगे जो भोग पहले उनका न होवे सुमरन।
मैं राज्य सम्पदा या, पद इन्द्र का न चाहूँ॥७॥ रत्नत्रय का हो पालन, हो अन्त में समाधि।
'शिवराम' प्रार्थना यह जीवन सफल बनाऊँ॥८॥
वैराग्य भावना
(दोहा) बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जगमाहिं। त्यों चक्री नृप सुख करै, धर्म विसारै नाहिं ॥१॥
(जोगीरासा वा नरेंद्र छंद) इहविध राज करै नर नायक, भोगे पुण्य विशालो। सुख सागर में रमत निरन्तर, जात न जान्यो कालो॥
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