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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव भारी॥४८॥ और अनेक भये इस जग में, समता रस के स्वादी। वे ही हमको हो सुखदाता, हरिहैं टेव प्रमादी॥ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन-तप, ये आराधन चारों। ये ही मोकों सुख की दाता, इन्हें सदा उर धारों ॥४९॥ यों समाधि उर माहीं लावो, अपनो हित जो चाहो। तज ममता अरु आठों मद को, जोति स्वरूपी ध्यावो॥ जो कोई नित करत पयानो, ग्रामान्तर के काजै। सो भी शकुन विचारै नीके, शुभ के कारण साजै ॥५०॥ मात-पितादिक सर्व कुटुम मिल, नीके शकुन बनावै। हलदी धनिया पुंगी अक्षत, दूब दही फल लावै॥ एक ग्राम जाने के कारण, करैं शुभाशुभ सारे । जब परगति को करत पयानो, तब नहिं सोचो प्यरि ॥५१॥ सर्वकुटुम जब रोवन लागैं, तोहि रुलाबैं सारे। ये अपशकुन करै सुन तोकौं, तू यों क्यों न विचारै॥ अब परगति को चालत बिरियाँ, धर्मध्यान उर आनो। चारों आराधन आराधो मोह तनो दुख हानो ॥५२॥ होय निःशल्य तजो सब दुविधा, आतमराम सुध्यावो। जब परगति को करहु पयानो, परमतत्त्व उर लावो। मोह जाल को काट पियारे, अपनो रूप विचारो। मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, यों उर निश्चय धारो॥५३॥ मृत्यु महोत्सव पाठ को, पढ़ो सुनो बुधिवान। सरधा धर नित सुख लहो 'सूरचन्द' शिवथान ।।५४॥ पंच उभय नव एक नभ संवत सो सुखदाय। आश्विन श्यामा सप्तमी कह्यो पाठ मन लाय ॥५५॥
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